पढ़ाई के नाम पर कमाई -निजी स्कूल बना बाजार

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पत्रकार:-संजय मिश्रादेश में शिक्षा को ज्ञान का मंदिर कहा जाता है। यहां गुरु – शिष्य परंपरा को भगवान और भक्त की तरह पूजा गया है। पर आज यही शिक्षा व्यवस्था खास कर निजी विद्यालयों की, अभिभावकों के लिए शोषण का एक उपकरण बन गई है। शिक्षा के नाम पर लूट, नैतिकता के हर उस सिद्धांत को कुचल रही है, जिसके दम पर एक सभ्य समाज की नींव रखी जाती है। आज हर मां – बाप की एक ही तमन्ना होती है- उनका बच्चा पढ़ लिखकर कुछ बने, आगे बढ़े। इसी सपने को आंखों में सजाकर वह निजी स्कूलों की चौखट पर दस्तक देते हैं। पर जैसे ही बच्चे का दाखिला होता है, लूट का सिलसिला शुरू हो जाता है। स्कूल फीस के नाम पर, किताबों के नाम पर, बैग और यूनिफार्म के नाम पर अभिभावकों को इस तरह निचोड़ा जाता है, मानो वे कोई एटीएम मशीन हो। निजी विद्यालयों का पहला शिकार होती है किताबें। सरकारी स्कूलों में जहां एनसीईआरटी या राज्य बोर्ड की किताबें मिलती हैं,जो किफायती होती है, वहीं निजी स्कूल विदेशी
प्रकाशकों की मोटी-मोटी किताबें थोपते हैं। एक बच्चे की केवल किताबों की कीमत ही दो- तीन हजार के ऊपर चली जाती है। और ये किताबें किसी भी सामान्य बुक स्टोर पर नहीं मिलती, सिर्फ उन्हीं दुकानों पर मिलती है जिनसे स्कूलों का “कमीशन” तय होता है। अक्सर देखा गया है कि एक विषय के लिए दो-दो तीन-तीन किताबें अनिवार्य कर दी जाती है। पहली कक्षा के छोटे- से बच्चे के स्कूल बैग में आठ- दस किताबें होती हैं। ये किताबें बोझ भी बढ़ाती है और मानसिक तनाव भी। एक ओर हम नई शिक्षा नीति में “बच्चों को बोझ से मुक्त करने” की बात करते हैं, दूसरी ओर निजी विद्यालय इन नीतियों को रद्दी की टोकरी में डालकर बच्चों की पीठ पर ज्ञान नहीं, अपने मुनाफे का बोझ लादते हैं। कई निजी स्कूल ड्रेस को भी लूट का साधन बना चुके हैं। एक तय रंग और डिज़ाइन की ड्रेस बाजार में मिल सकती है पर स्कूल प्रशासन ज़बरन कहता है- “ड्रेस तो केवल स्कूल से ही लेनी होगी”। और वह ड्रेस जो बाहर 500- 600 रू में मिल सकती है, स्कूल के आउटलेट से 2000 में मिलती है। यही नहीं एक-एक मौसमी पोशाक जैसे विंटर यूनिफॉर्म, स्पोर्ट्स ड्रेस आदि अलग से अनिवार्य कर दी जाती है। ऐसा नहीं है कि ये स्कूल खुद ड्रेस सिलते हैं। वे किसी स्थानीय दर्जी़ या निर्माता से गठजोड़ कर कमीशन फिक्स कर लेते हैं। अभिभावकों की मजबूरी है- बच्चे को स्कूल भेजना है, नियम मानना है चाहे जेब खाली क्यों ना हो जाए। कई निजी विद्यालय बैग,जूते,पानी की बोतल और स्टेशनरी में भी अपना कमीशन बनाते है। निजी विद्यालयों की फीस संरचना भी आज एक अबूझ पहेली बन गई है।ट्यूशन फीस के अलावा “डेवलपमेंट चार्ज” “एक्टिविटी फीस” “स्मार्ट क्लास फीस” “आईडी कार्ड फीस” “डायरी फीस” जैसे दर्जनों मदों में पैसे वसूले जाते है। न किसी चीज की रसीद दी जाती है,न किसी सेवा की पारदर्शिता होती है। परेशानी तब और बढ़ती है जब किसी अभिभावक की आर्थिक स्थिति कमजोर हो और वह किश्तों मे फीस देने की गुहार लगाए। स्कूल प्रशासन संवेदनशील होने की बजाय धमकी देता है – ‘ फीस जमा नहीं की तो बच्चे को परीक्षा में नहीं बैठने देंगे।’ शिक्षा जो संवेदनशीलता की मिसाल होना चाहिए, वह अब कठोर व्यापारिक नीति बन चूकी है। शिक्षा का यह निजीकरण और
व्यापारिकरण किसी एक शहर या राज्य की कहानी नहीं है। यह एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है। सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय ने समय-समय पर निजी स्कूलों की मनमानी पर रोक लगाने के निर्देश दिए हैं, परंतु ज़मीनी हालात नहीं बदलते। राज्य सरकारें कभी एक “फीस रेगुलेटरी कमेटी बनाती है, कभी एक सर्कुलर जारी करती है, पर उनका प्रभाव इतना कमजोर होता है कि स्कूल प्रशासन उन्हें कचरे में डाल देता है। हर माता-पिता अपने बच्चे को डॉक्टर, इंजीनियर, अफसर बनते देखना चाहते हैं। वे जानते हैं कि सरकारी स्कूलों की हालत आज भी कई जगह चिंताजनक है। मजबूरी में वे निजी स्कूलों का विकल्प चुनते हैं। पर इस मजबूरी को जब शिक्षा माफिया समझता है तो वह अभिभावकों के सपने को भी नगदी में तौलने लगता है। किसी दिहाड़ी मजदूर के लिए 40000 रुपया सालाना फीस देना क्या आसान है? वह पेट काटकर, त्यौहार की ख़ुशी त्याग कर, उधार लेकर बच्चों को पढ़ाता है, और बदले में स्कूल उसे अपमान और तिरस्कार देता है। इस समस्या से पूरा देश जूझ रहा है।फिर सवाल है कि क्या इस समस्या का कोई समाधान भी है? समाधान है ,और समाधान यह है कि फीस नियामक आयोग को मजबूत और सक्रिय बनाया जाए। हर राज्य में एक स्वतंत्र संस्था बने जो निजी स्कूलों की फीस और अन्य खर्चों की जांच करें और रिपोर्ट सार्वजनिक करें। किताबें और यूनिफॉर्म केवल खुले बाजार से खरीदने की अनुमति होना चाहिए। किसी स्कूल को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह अभिभावकों को एक विशेष दुकान से खरीदने के लिए मजबूर करें ।सरकारी स्कूलों को मजबूत करना होगा ताकि निजी विद्यालयों का एकाधिकार टूटे और अभिभावकों को विकल्प मिले। अभिभावक संघों को कानूनी दर्जा देकर मजबूत करना होगा। उनकी बात स्कूल प्रशासन के सामने मजबूती से रखी जाए। एक राष्ट्रीय पोर्टल बनाना होगा जहां स्कूलों की फीस संरचना, शिकायतें और कार्यवाहियों की जानकारी पारदर्शी तरीके से हो। शिक्षा सेवा है, व्यापार नहीं। अगर हमने शिक्षा को सिर्फ मुनाफे का धंधा बनने दिया, तो हम केवल अमीर बच्चों को ही शिक्षा दिला पाएंगे और गरीब बच्चा या तो अधूरी शिक्षा पाएगा या कर्ज में डूबेगा। हम एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना करते हैं जहां हर बच्चा, चाहे उसका पिता मजदूर हो या अधिकारी, एक समान शिक्षा पा सके। पर जब निजी विद्यालय बच्चों की किताबें और बैग से भी मुनाफा बटोरने लगे तब यह सपना, सपना ही रह जाता है। इस लूट के खिलाफ आवाज़ सबको उठाना पड़ेगा। क्योंकि जब शिक्षा बिकने लगे, तब सिर्फ किताबें नहीं, देश का भविष्य भी गिरवी रखा जाता है।