देश किस दिशा में जा रहा है? बड़े-बड़े वादों के पीछे छुपी हकीकत

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नई दिल्ली: बीते एक दशक में भारत की राजनीति में बड़े बदलाव आए हैं। मौजूदा केंद्र सरकार ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान कई ऐतिहासिक और भावनात्मक वादे किए थे, जिनमें जनता को आर्थिक, सामाजिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में बड़ी उम्मीदें दिलाई गई थीं। परंतु अब, दस वर्षों बाद, कई नागरिक यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या इन वादों को पूरा किया गया या फिर ये महज चुनावी जुमले थे?

वादे जो चर्चा में रहे

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी ने चुनावों के दौरान देश की जनता से कई बड़े-बड़े वादे किए थे:

पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) को भारत में शामिल करने की बात।

विदेशों में जमा काला धन वापस लाकर हर भारतीय को 15 लाख रुपये देने का वादा।

अपराधी दाऊद इब्राहिम को भारत वापस लाने की घोषणा।

गंगा नदी को पूरी तरह साफ करने का संकल्प।

हर साल 1 करोड़ नौकरियों का वादा

500 स्मार्ट सिटी बनाने की योजना।

टैक्स दरों में कमी और पेट्रोल-डीजल की कीमत ₹35 करने का दावा।

किसानों को वृद्धावस्था पेंशन, कर्ज माफी और फसलों के उचित मूल्य की गारंटी।

इन घोषणाओं ने जनभावनाओं को प्रभावित किया और बड़े स्तर पर समर्थन जुटाया। लेकिन अब कई नागरिक यह महसूस कर रहे हैं कि ज़मीन पर इन वादों की वास्तविकता बहुत अलग है। 

वास्तविकता की पड़ताल

सरकारी आंकड़ों और स्वतंत्र रिपोर्टों के अनुसार, स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट अब तक अधूरा है। रोजगार के मोर्चे पर सरकारी भर्ती धीमी रही है, और प्राइवेट सेक्टर में भी व्यापक स्तर पर स्थायी नौकरियों का अभाव दिखा है। रोजगार दरों में गिरावट, और बढ़ती बेरोजगारी युवाओं के लिए चिंता का विषय बनी हुई है।

गंगा सफाई योजना ‘नमामि गंगे’ पर अब तक हज़ारों करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार नदी की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है।

काला धन वापसी और दाऊद इब्राहिम की प्रत्यर्पण प्रक्रिया भी अधर में है। कई बार यह मुद्दे मीडिया और जन मंचों पर उठे, लेकिन ठोस प्रगति नहीं दिखी।

आर्थिक दबाव और टैक्स का बोझ

नागरिकों का एक बड़ा वर्ग यह भी आरोप लगा रहा है कि सरकार ने टैक्स में कमी का वादा तो किया था, लेकिन वास्तविकता में GST के विभिन्न स्लैब ने आम लोगों को जटिल कर व्यवस्था में उलझा दिया है। रोजमर्रा की ज़रूरतों की चीज़ें महंगी होती गईं, पेट्रोल और डीजल के दाम ऐतिहासिक ऊँचाई पर पहुंचे।

साथ ही, सरकार पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य, मिड डे मील योजना, और मनरेगा जैसे जनकल्याणकारी योजनाओं के बजट में कटौती की गई है।

सुरक्षा और रक्षा क्षेत्र में सवाल

विपक्ष और कई सामाजिक कार्यकर्ता यह भी आरोप लगाते हैं कि भारतीय सेना और रक्षा मंत्रालय के बजट में पिछले वर्षों में गिरावट देखी गई है, जबकि सुरक्षा चुनौतियाँ लगातार बनी हुई हैं। आतंकवादी हमलों और रेल दुर्घटनाओं की घटनाओं पर भी सरकार की जवाबदेही पर प्रश्नचिन्ह लगे हैं।

राजनीतिक नैतिकता पर सवाल

विपक्ष का आरोप है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाकर सत्ता में आई सरकार ने खुद कई ऐसे नेताओं को पार्टी में शामिल किया जिन पर गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। 2G स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ घोटाले की जांचों में भी अदालतों ने कई आरोपियों को दोषमुक्त करार दिया, जिससे यह सवाल उठने लगे कि इन मुद्दों को केवल चुनावी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया।

चंदा और पारदर्शिता

Electoral Bonds के माध्यम से राजनीतिक दलों को मिले हजारों करोड़ रुपये के चंदे पर भी गंभीर सवाल उठे हैं। विशेष रूप से, बीजेपी को सबसे अधिक चंदा मिलने और उसके स्रोतों की गोपनीयता को लेकर आलोचना की गई है। वहीं, PM CARES Fund की पारदर्शिता पर भी समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं।

सामाजिक तनाव और अधिकारों का हनन

देश में भीड़ हिंसा, ट्रेन हादसों, किसान आत्महत्याओं, और बेरोजगारी की घटनाओं के बीच आम नागरिकों का असंतोष बढ़ता गया है। सरकार पर यह भी आरोप हैं कि आलोचना करने वालों को या तो नजरअंदाज किया जाता है या फिर उन पर कार्रवाई की जाती है। कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को जेल में डाला गया है, जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों की चिंता जताई जा रही है।

निष्कर्ष

सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं और कुछ क्षेत्रों में प्रगति भी हुई है, जैसे डिजिटल इंडिया, सड़कों का विकास, और कुछ अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत की छवि को मज़बूत करना। लेकिन जिस पैमाने पर वादे किए गए थे, उनके सापेक्ष ज़मीनी सच्चाई को लेकर अब आम जनता सवाल कर रही है।

राजनीति में सवाल पूछना और जवाबदेही तय करना लोकतंत्र का सबसे अहम हिस्सा है। यह जरूरी है कि जनता जागरूक बनी रहे और सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करती रहे, ताकि एक स्वस्थ, पारदर्शी और जिम्मेदार शासन व्यवस्था कायम रह सके।